मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014
संत कुंभनदास और राजा रामसिँह
एकवार राजा मानसिँह नेँ प्रकृति कवि कुंभनदास जी के दर्शन के लिये अपना भेष बदला और कवि के घर पहंचे । उन्होने देखा कवि अपने पूत्री से कह रहे थे कि जाकर दर्पण ले आये उन्हे माथे पर टिका करना हे । कवि कुंभनदास कि पूत्री दर्पण लेकर आ रही थी पर आते वक्त उसके हात से दर्पण नीचे गिरा और टुट गया ।
कुंभनदास जी नेँ शांतभाव से कहा कोई वात नहीँ तुम एक वर्तन मेँ पानी भर कर लाओ मेँ टिका कर लुगां । राजा को कवि के निर्धनता पर दुःख हुआ । अगले दिन राजा मानसिँह अपने असली रुप मेँ कवि के घर पधारे और कवि को रत्न युक्त दर्पण रखलेने के लिये अनुरोध किया ।
कवि कुंमनदास जी नेँ राजा का स्वागत किया और बड़े नम्रभाव से राजा मानसिँह से कहने लगे राजन ! आप मुझे दर्शन देने के लिये स्वयं चलकर आये यही मेरे लिये वहुत हे परंतु आपसे एक आग्रह हे कृपया आप जब भी अयेँ खाली हाथ आये मुझे माता सरस्वती के कृपा सिवाय और कुछ नही चाहिये ..। राजा मानसिँह आश्चर्य चकित रहगये ,
उन्होने देखा कवि कुँभनदास जी अपने निर्धनता से दुःखी नही हे अपितु वो तो अपने जीवन से पूर्ण संतुष्ट है । कवि कि निःस्पृहमनोवृत्ति देखकर राजा मानसिँह के ह्रृदय मेँ उनके प्रति आदारभाव और बढ़गया ।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें